मुकेश यादव/महोबा विशेष
महोबा। बुदेलखण्ड मे ही नहीं बल्कि पूरे देश मे महोबा को आल्हा-ऊदल की वीरता के लिए जाना जाता है। आल्हा ऊदल का जन्म दस्सराज की पत्नी देवकुंवरि के गर्भ से हुआ था। आल्हा का जन्म 25 मई सन् 1140 को महोबा मे ग्राम दिसरापुर मे हुआ था। आल्हा का ऐतिहासिक उल्लेख मदनपुर, शिलालेख मे उपलब्ध है। वीर आल्हा की याद मे महोबा मे आल्हा चैक चैराहा बना है जहाॅ पर गजारूढ़ आल्हा की शानदार प्रतिमा बनी है। आल्हा के जन्म पर ज्योतिषियों ने राजा परमाल को बताया था कि यह बालक सिंह लग्न मे जन्मा है यह सभी राजाओ पर सिंह के समान गरजेगा और आल्हा के नाम से प्रसिद्ध होगा। आल्हा की सवारी घोड़ा करिलिया, घोड़ा पपीहा और पचशब्द हाथी थे। आल्हा का विवाह नैनागढ़ मे राजा नैप्राली की पुत्री सुनवा से हुआ, सुनवा का दूसरा नाम मछला था। आल्हा धर्मराज युधिष्ठिर के अवतार थे, उन्होने देवी शारदा को भक्ति से प्रसन्न किया था, इसलिए देवी ने उन्हे अमरता का वरदान दिया। आल्हा किसी भी लड़ाई मे पराजित नही हुए। बेला के सती होने अंतिम लड़ाई मे भी आल्हा ने पृथ्वीराज की सेना को सिरहीन कर दिया था। बेला के सती होने पर दिल्ली के राजा पृथ्वीराज ने उसकी चिता पर आग लगाने से ऊदल को रोका इससे आल्हा-ऊदल की सेना व पृथ्वीराज की सेना मे भयंकर युद्ध हुआ। इस लड़ाई मे राजा परमाल की ओर से ढेबा ब्राहम्ण, जगनायक, ताला सैय्यद, लाखन के मामा गंगा लाखन व वीर आल्हा ने भयंकर युद्ध किया। पृथ्वीराज चैहान की ओर से उसके सेनापति चैड़ा भूरा, मुगल वीर भुगन्ता, धाॅधू व पृथ्वीराज ने युद्ध किया। इस लड़ाई मे सर्वप्रथम पृथ्वीराज के सेनापति चैड़ा का युद्ध ढेबा ब्राहमा और जगनायक के बीच हुआ, जिसमे बहादुरी से लड़ते हुए ढेबा और जगनायक वीरगति को प्राप्त हुए। इसके बाद ताला सैय्यद का पृथ्वीराज की सेना के भूरा मुगल के बीच कड़ा मुकाबला हुआ। ताला सैय्यद ने तलवार से भूरा का शीष काट लिया। आल्हा खण्ड मे उल्लेख है- खैंचि बढ़ो अगार। पृथ्वीराज की सेना के वीर भुगन्ता ने ताला सैय्यद को युद्ध मे मार गिराया। इससे लाखन चिंतित हुए तब लाखन के मामा गंगा ने तलबार से वीर भुगन्ता के सिर को काट दिया। तत्पश्चात पृथ्वीराज ने युद्ध के लिए धांधू को भेजा, उसने गंगा को भाला की चोट से मार गिराया। इसके बाद लाखन और धांधू के बीच घमासान युद्ध हुआ। लाखन भुरूहि पर सवार होकर आए और धांधू से कड़ा मुकाबला किया। धांधू ने लाल कमान से व भाला से लाखन पर भयानक चोटे की परंतु सभी चोटे लाखन ने बचाली और लाखन ने गुर्ज चलाकर धांधू की जीवनलीला समाप्त कर दी। तब पृथ्वीराज चैहान जो शब्दभेदी बाण चलाना जानता था युद्ध भूमि मे आया उसने लाखन को घेर लिया।
लाखन ने अपनी हथिनी को लोहे की जंजीर सूढ़ मे पहना दी हथिनी ने जंजीर घुमाकर पृथ्वीराज की सेना को तितर- बितर कर दिया। आल्हा खण्ड मे उल्लेख है- भूरही सांकल फेरन लागी, लश्कर तिड़ी- बिड़ी हुइ जाय। अकेले लाखनि की झपटिन मे सब दल रेन बेन हुई जाय। तब पृथ्वीराज ने क्रोधित होकर लाखन पर लाल कमान से तीर छोड़े उसके तरकस मे 22 तीर थे। पृथ्वीराज के तीर लाखन की ढाल को बेधते हुए लाखन की छाती के उस पार निकल गए मगर लाखन हिले तक नही और लाखन की झुरूहि घोड़ी आगे बढ़ी उसने पृथ्वीराज के आदि भयंकर हाथी को अपनी शक्ति से युद्ध से ढंके लकर हटा दिया। पृथ्वीराज को युद्ध मे पीठ दिखाना पड़ी इसी बीच लाखन की ढाल हाथ से गिरी और वे पृथ्वी पर गिर गए। इसके बाद चैड़ा और ऊदल का युद्ध हुआ। चैड़ा ने लाल कमान साॅग और भाला से ऊदल पर चोटे की परंतु ऊदल ने बहादुरी से सभी चोटे बचाली। तब ऊदल ने भी अपने रस बेंदुल घोड़े से चैड़ा के हाथी के कलशे गिरा दिए इससे चैड़ा घबरा गया। अन्त मे चैड़ा ने ऊदल का तलवार से शीश काट लिया। ऊदल के वीरगति होने इंदल ने अपने पिता आल्हा से कहा कि चैड़ा मेरी जोड़ी का नही है, नही तो युद्ध मे मै इसके शरीर के चार खण्ड कर देता। तब आल्हा को जोश आया और आल्हा ने चैड़ा से भयानक युद्ध किया। युद्ध मे चैड़ा ने लाल कमान साॅग तलवार और शिरोही से आल्हा पर चोटे की परंतु आल्हा ने फुर्ती से सभी चोटे बचाली। चैड़ा को देवी का बरदान था कि उसके रक्त की जितनी बूंदे पृथ्वी पर गिरेगी। उतने नए चैड़ा पैदा हो जाएगे।
इसलिए आल्हा ने चैड़ा को बलपूर्वक उसके हाथी उतारकर उसे मींज-मींज कर मार डाला। आल्हा खण्ड मंे इस प्रकार वर्णन है- बाॅह पकरि कै तब चैड़ा की त्याहि हौंदा ते लियो उता।ि मींजि- मींजि कै चैड़ा मारयो, देखो हाल पिथौरा राय। अंतिम लड़ाई आल्हा और पृथ्वीराज चैहान के बीच हुई। आल्हा ने पृथ्वीराज को ललकारा और घुंडी खोलदी और पृथ्वीराज को पहले आक्रमण करने को कहा। पृथ्वीराज ने लाल कमान से आल्हा पर तीर चलाए , तो आल्हा की भुजाओ से रक्त के बजाय दूध की धार बहने लगी। आल्हा खण्ड मे इस प्रकार है- घुंडी खोल दई आल्हा जब पिरथी लीन्ही लाल कमान। तीर चलायो पृथ्वीराज ने लागो तीर भुजा मे जाये। लागत तीर के भुजदण्डन ते, निकसी तुरंत दूध की धार। भुजाओ से दूध की धार बहने से आल्हा जान गए कि वह अमर है, जबकि इसके पूर्व वह समझते थे कि ऊदल अमर है। आल्हा के पचशब्द हाथी ने जंजीर घुमाकर पृथ्वीराज के सैनिको को युद्ध भूमि मे तितर बितर कर दिया। आल्हा ने देवी शारदा की दी हुई तलबार निकाली और घमासान युद्ध किया। उस तलवार की आभा जहाॅ तक पड़ी वहाॅ तक के पृथ्वीराज के सभी सैनिक सिरहीन हो गए। केवल पृथ्वीराज और उसका कवि चन्द्रभाट वृक्ष की ओट मे हो गए थे, इस लिए वे बच गए। तब आल्हा ने पृथ्वीराज को मारना चाहा, उसी समय गुरू गोरखनाथ प्रगट हो गए। उन्होने आल्हा से तलबार म्यान मे रखने को कहा और पृथ्वीराज को समझा बुझाकर युद्ध भूमि स घर जाने कहा। गुरू गोरखनाथ आल्हा को तप करने को लिए बन ले गए। ऐसी मान्यता है कि आल्हा ब्रहम मुहूर्त मे मैहर की शारदा देवी के मंदिर मे जल व पुष्प चढ़ाने जाते है। मंदिर के पट खुलने पर पुष्प चढ़े हुए मिलते है।