भारत में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े चौंकाने वाले हैं। ये विश्व में सर्वाधिक हैं । आंतरिक निराशा और तनाव से उत्पन्न मानसिक अवसाद का अतिरेक ही व्यक्ति को आत्म हत्या के लिये उकसाता है । इसका सबसे बड़ा कारण भारत में बदलती जीवन शैली और बिखरते परिवार हैं । एकाकी जीवन न किसी से कुछ कह पाता है और न कुछ सह पाता है ।
पूरी दुनियाँ में आत्म हत्या के आकड़े बढ़ रहे हैं। वर्ष 2022 में दुनियाँ भर में लगभग सात लाख लोगों ने आत्महत्या की । इसमें एक चौथाई संख्या भारत के लोगों की है। भारतीय अपराध अनुसंधान ब्यूरों के अनुसार 2022 में भारत के लगभग पौने दो लाख लोगों ने आत्महत्या की । जो 2021 की तुलना में बारह हजार अधिक है । 2021 में आत्महत्या करने वालों की कुल संख्या 1 लाख 64 हजार थी । अर्थात प्रतिदिन 450 भारतीयों ने जीवन से घबराकर मौत को गले लगाया । यदि इन आंकड़ों को मिनट का औसत निकालें तो यह हर तीन मिनिट में एक आत्म हत्या का आता है । इसमें हर आयु वर्ग और हर क्षेत्र के लोग हैं । एनसीआरबी (नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो) के अनुसार 2021 में जिन 1.64 लोगों ने आत्महत्या की इनमें 1.19 लाख पुरुष और 45 हजार महिलाएँ और 28 किन्नर हैं । नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के अनुसार 2021 में आत्महत्या करने वाले 26526 ऐसे युवा थे जो पढ़ाई के सिलसिले में एकाकी अथवा घर से दूर अलग रहते थे । इनमें लगभग 13,000 ने परीक्षा के निराशा जनक परिणाम के कारण और शेष ने अन्य कारणों से । इनमें दोनों प्रकार के युवा थे । एक वे जो अनुत्तीर्ण हो गये थे और दूसरे वे जो उत्तीर्ण हुये तो पर आशा के अनुरुप अंक न पा सके । युवाओं में आत्महत्या का बढ़ता प्रतिशत अन्य आयुवर्ग के लोगों से अधिक है । जो चिंता जनक है । पिछले 25 वर्षों में आत्महत्या करने वाले छात्रों का आंकड़ा लगभग 2 लाख से ऊपर है। यदि हम केवल छात्रों में बढ़ती आत्महत्या का प्रतिशत निकालें तो यह 32.15% की वृद्धि दर्शाता है। जिन तीन प्राँतों के युवा सर्वाधिक आत्महत्या करते हैं इसमें सबसे आगे महाराष्ट्र है जहाँ वर्ष 2021 में 1,834 छात्रों ने आत्महत्या की । इसके बाद मध्य प्रदेश और तमिलनाडु प्राँत हैं ।
आत्महत्या के मामले में पुरुषों की संख्या महिलाओं से बहुत अधिक है । महिलाओ की आत्म हत्या के कारण घरेलू विवाद और प्रेम की असफलता अथवा धोखा अधिक होता है । छात्रों के अतिरिक्त कृषक, व्यापारी, शासकीय अशासकीय सेवक, श्रमिक आदि सभी वर्गों के लोग आत्महत्या करते हैं।
मानसिक अवसाद के कारण
कहने के लिये पूरी दुनियाँ में जीवन स्तर बढ़ रहा है, सुख सुविधाएँ बढ़ रहीं हैं तो मनोरोग और मानसिक अवसाद भी बढ़ रहा है जो व्यक्ति को जीवन से निराश करता है और आत्महत्या की ओर धकेलता है । यह निर्विवाद है कि भारत में जीवन स्तर सुधरा है, जीवन शैली बदली है और सुख सुविधाओं में वृद्धि भी हुई है तो मानसिक अवसाद भी बढ़ा है । यदि आर्थिक आधार पर आत्म हत्या के आंकड़ो का विश्लेषण करें तो आत्म हत्या करने वालों का प्रतिशत उन परिवारों का अधिक होता है जो अपेक्षाकृत प्रगतिशील हैं और मध्यमवर्गीय माने जाते हैं। इन परिवारों में प्रगति की दौड़ जितनी तेज होती है उससे अधिक प्रगति के सपने होते हैं। सपनों के अनुसार स्थान न मिलना ही मानसिक अवसाद का कारण है । जो व्यक्ति को इतने तनाव और निराशा से भर देता है कि वह या तो लोगों से मुँह छुपाता है या जीवन से ऊब जाता है । आशा के अनुरूप परिणाम का न मिलना या समस्या आने पर सामाधान न सूझना, आर्थिक, सामाजिक, कार्यालयीन अथवा पारिवारिक विसंगतियाँ आ जाने पर व्यक्ति को समाधान नहीं सूझता या किसी का सामना करने का साहस नहीं होता तो वह आत्महत्या का मार्ग अपनाता है । यह ठीक वैसा ही है जैसे पानी की जलराशि में तैरते समय तैराक थक जाने अथवा मार्ग भटक जाने से सामर्थ्य खो देता है और डूब जाता है । ठीक इसी प्रकार जीवन में आईं परिस्थिति का निदान होता न देख व्यक्ति अवसाद में डूबकर आत्महत्या का मार्ग चुन लेता है ।
संसार में ऐसा कोई काम नहीं जिसमें समस्या न हो और ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका समाधान न हो । यदि हर समस्या का समाधान है तो अवसाद में डूबा व्यक्ति समाधान क्यों नहीं खोज पाता । ऐसा भी नहीं है कि समस्याएँ केवल उन्हीं के सामने आतीं हैं जो आत्म हत्या करते हैं। समस्याएँ तो सबके सामने आतीं हैं। लेकिन जो उनका निराकरण जानते हैं वे आगे बढ़ जाते हैं और जो नहीं जानते वे डूब जाते हैं। अब प्रश्न यह भी है कि कौन समस्या से संघर्ष करके समाधान खोज लेता हो और आगे बढ़ जाता है । और कौन सामाधान नहीं खोज पाता ।
समस्या का समाधान खोजने या उनमें डूब जाने के वैचारिक बीज बचपन से लेकर वर्तमान तक की जीवन यात्रा तक जुड़े होते हैं। इसमें एक बड़ा कारण समय पर सामूहिक होना भी है । अपनी खुशी या गम को बाँटने की आदत होना है । चींटी से लेकर हाथी तक सब समस्या या खुशी आने पर एकजुट हो जाते हैं। लेकिन मनुष्य है जो खुशी का प्रदर्शन तो करता है पर खुशी को बाँटता नहीं है । ठीक इसी प्रकार गम आने पर गम बाँटता नहीं अपितु मुँह छिपाता है और एकाकी रहने का प्रयास करता है । समस्या आने पर सहयोग करने या सहयोग लेने का भाव उन लोगों में अधिक होता है जिनका बचपन सामूहिक परिवार में बीतता है । वे सामूहिक होते हैं। बालवय में अनजाने ही रूठना, मनाना, सहयोग करना और सहयोग लेना सीख लेते हैं। परस्पर खेलते कूदते सामने आने वाली कमजोरियों पर संकोच भी नहीं होता । लेकिन अब बदलती जीवन शैली में सुख सुविधा बढ़ रहीं पर परिवार परंपराएँ टूट रहीं हैं । परिवार ही नहीं व्यक्ति भी एकाकी हो रहे हैं । बच्चे पढ़ाई के लिये एकाकी रह रहे हैं। तो पति पत्नि जाॅब केलिये अलग-अलग नगरों में हैं। बच्चे और युवा खाली समय में खेल कूद या सामूहिक गतिविधियों से शारीरिक और मानसिक क्षमता वृद्धि में नहीं करते अपितु कम्प्यूटर और मोबाइल पर बीतता है । जो उन्हें और अकेला करता है । यदि परिवार में सब एकसाथ रहते भी हैं तो सब अपने अपने मोबाइल या टीवी पर जुटे होते हैं। एक ओर एकाकी पन बढ़ रहा तो दूसरे ओर जीवनशैली दिखावटी और सजावटी होती जा रही है । इस दिखावट और सजावट में तब और वृद्धि होती है जब व्यक्ति मोबाइल और कम्प्यूटर के माध्यम से सपनों की ऐसी दुनियाँ में खो जाते हैं जिसका जीवन की वास्तविकता से कोई संबंध नहीं होता । तब इनके भीतर स्वयं को बढ़ा चढ़ा कर प्रस्तुत करने की मानसिकता जन्म ले लेती है । और जब समस्या सामने आती है तो ऐसे लोग असहाय अनुभव करते हैं और उन्हें आत्महत्या के अतिरिक्त कोई मार्ग सूझता ही नहीं।
किसी समस्या का समाधान खोजने में दिखावटी, सजावटी जीवन जीने वाले लोगों की अपेक्षा वे लोग अधिक सक्षम होते हैं जिनकी संकल्प शक्ति अधिक होती है । संकल्प शक्ति के बीज बचपन में पालन पोषण में ही पड़ते हैं और समय के साथ विकसित होते हैं। यह बीजारोपण सामूहिक गतिविधियों से होता है । ऐसी गतिविधियाँ घर के भीतर या घर के बाहर खेलते कूदते, गिरते संभलते, और सफलता देखकर उत्पन्न होती है । चींटी से लेकर हाथी तक सब प्राणी समस्या आने पर एकजुट हो जाते हैं। लेकिन मनुष्यों में अब समूह ही नहीं परिवार से दूर रहकर जीवन की शैली विकसित हो रही है जिससे व्यक्ति समस्या आने पर या कहानियाँ गढ़ता है अथवा मुँह छिपाकर एकाकी रहने का प्रयास करता है । उसमें इतना साहस नहीं होता कि किसी से समस्या की चर्चा करके मन को हल्का कर सके । समस्या का समाधान समस्या में डूबने से नहीं अपितु हल्के मन से समाधान ढूँढने से आता है । समस्या आने पर सहयोग करने या सहयोग लेने का भाव उन लोगों में अधिक होता है जिनका बचपन सामूहिक परिवार में बीतता है । वे अनजाने ही रूठने, मनाने, सहयोग करना और सहयोग लेना सीख लेते हैं। सामूहिकता में जीने वाले वोग या युवा कमजोरियाँ सामने आने पर भी कोई बहुत संकोच नहीं करते था । उनके भावों में कोई विचलन या विसंगति उत्पन्न नहीं होती बल्कि कह सुनकर मन हल्का कर लेते हैं। जिससे आगे की राह आसान हो जाती है । लेकिन अब बदलती जीवन शैली में ढाँकने और छिपाने का भाव उत्पन्न होता है । और जब छुपाने या सहन करने की सामर्थ्य समाप्त हो जाने की स्थिति मेंअवसाद इतना बढ़ता है कि व्यक्ति में आत्म हत्या का भाव प्रबल हो जाता है ।
मानसिक अवसाद से बढ़ते आत्महत्या के आंकड़ों से पूरी दुनियाँ चिंतित है । विश्व स्वास्थ्य संगठन भी और भारत सरकार भी । विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इंटरनेशनल एसोसिएशन फॉर सुसाइड प्रिवेंशन नामक एक वैश्विक संस्था गठित की है जो पूरी दुनियाँ में आत्महत्या और आत्मघाती व्यवहार को रोकने का अभियान चलाती है । यह संस्था ऐसा सामाजिक वातावरण बनाने के लिए सक्रिय है जो मानसिक अवसाद के रोगियों में आत्मविश्वास जगाए । इसके लिये काउंसिलिंग के साथ मन को सशक्त बनाने वाली शिक्षा, मानसिक स्वास्थ्य वर्धक वातावरण बनाने के लिये समाज को जाग्रत करेगी । यह संस्था समाज सेवियों और सार्वजनिक कार्यकर्ताओं की ऐसी टोली तैयार कर रही है जो मानसिक संबल प्राप्त करने के जरूरतमंदों को एक मंच उपलब्ध कराये ताकि वे अपनी बात खुलकर कर सकें और कह सकें। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भी बढ़ती आत्महत्याओं पर चिंता प्रकट की है और समाज से सामूहिक होने केलिये कुछ समय निकालने की अपील की है ।