31 जुलाई 1968 : स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सुविख्यात वेदान्त विभूति श्रीपाद दामोदर सातवलेकर का निधन
- वेद वेद-वेदांग की पुर्नप्रतिष्ठा और सांस्कृतिक जागरण के लिये समर्पित जीवन
भारत राष्ट्र के सांस्कृतिक गौरव का मूल वेद-वेदांग है । इसलिए विदेशी आक्रांताओं ने वेदों और उनकी महत्ता को धूमिल करने का प्रयत्न किया किंतु समय समय पर ऐसी विलक्षण विभूतियों ने जन्म लिया जिन्होंने अपना वेद-वेदांग के माध्यम से भारत राष्ट्र के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक गौरव को पुर्नप्रतिष्ठित करने का काम किया । श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ऐसी ही विभूति थे ।
भारत सरकार ने 1968 में उन्हें ‘साहित्य एवं शिक्षा’ के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित भी किया था।
उनका जन्म महाराष्ट्र में सह्याद्रि पर्वत शृंखला के दक्षिणी छोर पर स्थित सावंतवाड़ी क्षेत्र के एक छोटे से गांव ‘कोलगांव’ में 19 सितंबर 1868 को हुआ था । यह गांव अब रत्नागिरि जिला के अंतर्गत आता है । इनके परिवार में वैदिक वातावरण था । पिता श्री दामोदर भट्ट, पितामह श्री अनंत भट्ट और प्रपितामह श्री कृष्ण भट्ट भी ऋग्वेदिक वैदिक परंपरा के मूर्धन्य विद्वान रहे हैं। इसलिए बालक श्रीपाद भी बचपन से वेदों का अध्ययन करने लगे। आठ वर्ष की आयु में उन की विद्यालयीन शिक्षा आरंभ हुई। आचार्य श्री चिंतामणि शास्त्री केलकर संस्कृत आचार्य बने । संस्कृत और वैदिक अध्ययन केसाथ उन्होंने चित्रकला सीखी । वहां उन्हें मालवणकर जी गुरु के रूप में मिले । उनके पिता श्री दामोदर भट्ट भी चित्रकला में प्रवीण थे। अत: घर की दीवारों पर श्रीपाद की चित्रकारी निखरने लगी। मूर्तिकला में भी उनका कोई सानी नहीं था। चित्रकला में निपुण होकर उन्होंने हैदराबाद में अपनी चित्रशाला स्थापित की। अपने व्यवसाय के साथ-साथ उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भी उत्साहपूर्वक भाग लेना आरंभ किया। और अपने लेखों के माध्यम से समाज जागरण आरंभ किया । उनके लेखन का आधार वेद ही होते थे । बंदी बनाये गए और तीन वर्ष कारावास में रहे । जेल से मुक्त हुये तो परिवार ने उनका विवाह कर दिया । उन्हे वैदिक विद्वान साधले परिवार की पुत्री सरस्वती देवी पत्नि के रूप में मिली । विवाह के एक वर्ष बाद श्रीपाद जी आजीविका के लिये मुम्बई पहुंचे। लेकिन चित्रकारी वेद-वेदांग का अध्ययन यथावत रहा । चित्रकारी और शिल्पकला में उन्हे दो बार सर्वोत्तम “मेयो पदक” पुरुस्कार मिला । 1893 में मुम्बई के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्ट में शिक्षक के रूप में नियुक्ति हो गयी ।
सन् 1900 में श्रीपाद मुम्बई छोड़कर वापस हैदराबाद आ गए । वे यहाँ तेरह वर्ष रहे। और अपने समय के सुप्रसिद्ध चित्रकार देउस्कर जी की सहायता से एक स्टूडियो बनाया। यहीं उनका संपर्क वे आर्य समाज से हुआ । वे आर्य समाज की वेदांत गोष्ठियों में भाग लेने लगे। उनकी व्याख्या और तर्क से समूचा वैदिक विद्वान समाज प्रभावित हुआ । उन्होंने आर्य समाज केलिये “सत्यार्थ प्रकाश”, “ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका” व “योग तत्वादर्श” का मराठी में अनुवाद भी किया।
वेदों के अर्थ और आशय का जितना गंभीर अध्ययन और विश्लेषण श्रीपाद सातवलेकर जी ने किया उतना कदाचित् ही किसी अन्य भारतीय ने किया हो। वैदिक साहित्य के संबंध में उन्होंने अनेक लेख लिखे और उन्होंने विवेक वर्धिनी नामक शिक्षा संस्थान भी स्थापना किया । राष्ट्रीय विचारों से ओतप्रोत आपकी ज्ञानोपासना निजाम प्रशासन को अच्छी न लगी । उनपर दबाब आया और हैदराबाद छोड़ देना पड़ा। वे हैदराबाद से चलकर हरिद्वार पहुँचे। विद्वानों से मिले और 1918 मे औंध पहुँचे । यहाँ वे पुनः स्वतंत्रता आंदोलन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़े वे स्वदेशी पर व्याख्यान देने शुरू किये। 1919 में उन्होंने औंध में “स्वाध्याय मण्डल” की स्थापना की। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद का अनुवाद करना आरंभ किया। जो प्रकाशित भी हुआ। 1919 में ही उन्होंने हिन्दी में “वैदिक धर्म” मासिक और 1924 में मराठी “पुरुषार्थ” पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू किया। पंडित सातवलेकर ने छात्रों तथा सामान्य पाठकों के लिए वेदों की भाषा को सरलता पूर्वक समझ सकने योग्य बनने हेतु “संस्कृत स्वयं शिक्षक” पुस्तकमाला का लेखन किया।
1936 में सतारा आये यहाँ उनका संपर्क राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से के संस्थापक डाक्टर हेडगेवार से हुआ और वे संघ से जुड़ गये । उन्हें औंध रियासत के संघचालक का दायित्व मिला । उन्होंने पूरे क्षेत्र में प्रवास कल नयी शाखाएं आरम्भ कीं। सोलह वर्षों तक उन्होंने संघ का काम देखा और कार्य विस्तार किया । इसी बीच 1942 में “अंग्रेजो भारत छोड़ो” नाम से स्वाधीनता आंदोलन म का आव्हान हुआ । श्रीपाद जी इस आँदोलन में सक्रिय हो गये । गिरफ्तार हुये जेल गये । अथक परिश्रम के कारण उनकी शारीरिक शक्ति क्षीण होने लगी थी। वे अस्वस्थ भी रहने लगे थे। अस्वस्थता के कारण रिहा कर दिये गये । जेल से आकर वे पूरी तरह वेद-वेदांग में लग गये । सातवलेकर जी ने कोई 409 ग्रंथों की रचना की। इनमें सर्वाधिक प्रतिष्ठा उनके वेद-भाष्यों को मिली है। आचार्य सायण के वेद-भाष्य के बाद इन्हीं का वेद-भाष्य हिन्दी में सर्वाधिक प्रमाणिक माना जाता है। आपके द्वारा संकलित “वैदिक राष्ट्रगीत” तो अद्भुत ग्रंथ है। यह एक साथ ही मराठी एवं हिंदी भाषाओं मुम्बई और प्रयागराज दोनों स्थानों से प्रकाशित हुआ। उनके द्वारा सृजित राष्ट्रशत्रु का विनाश करने में सक्षम वैदिक मंत्रों के इस संग्रह से उन शक्तियों को गहरी ठेस लगी जो भारत में भारतीयों को भ्रमित कर मतान्तरण का षड्यंत्र कर रहीं थीं। इनमें कुछ मिशनरीज शक्ति आगे थी । उनके दबाब में अंग्रेजी सत्ता ने इस ग्रंथ पर प्रतिबंध लगाया और इसकी सभी प्रतियाँ जब्त करके नष्ट करने का आदेश दे दिया। जिनपर से प्रतिबंध स्वतंत्रता के बाद ही उठ सका ।
उनके द्वारा ऋग्वेद का सुबोध भाष्य चार खण्डों में, यजुर्वेद का सुबोध भाष्य दो खण्डों में सामवेद का सुबोध अनुवाद अथर्ववेद का सुबोध भाष्य चार खण्डों में प्रकाशित हुआ । इनके अतिरिक्त ऋग्वेद मूल संहिता, यजुर्वेद मूल संहिता, सामवेद मूल संहिता, अथर्ववेद मूल संहिता, यजुर्वेदीय काठक संहिता, यजुर्वेदीय मैत्रायणी संहिता, यजुर्वेदीय काण्व संहिता तथा कृष्ण यजुर्वेदीय तैत्तिरीय संहिता उनके प्रमुख ग्रंथ हैं। उन्हें 9 जून 1968 को पक्षाघात हुआ और 31 जुलाई 1968 को एक सौ एक वर्ष की आयु में उन्होंने संसार से विदा ली ।
आज वे हमारे बीच नहीं हैं पर वैदिक साहित्य को पुनप्रतिष्ठित करने में उनका जो योगदान है उसके प्रति भारतीय सनातन समाज सदैव ऋणी रहेगा ।
द्वारा- रमेश शर्मा