(बुन्देलखण्ड महोबा के गोखारगिरि व शहीद मेला पर विशेष)
महोबा। बुन्देलखण्ड के हृदय स्थल महोबा का शानदार इतिहास रहा है। पूर्व में बुन्देलखण्ड को जेजाकभुक्ति राज्य के नाम से जाना जाता था। जेजाकभुक्ति राज्य को भारतीय इतिहास में स्वर्णिम काल माना गया। इस वैभवशाली राज्य की महोबा गौरवपूर्ण राजधानी थी। उस समय यह क्षेत्र अत्यन्त समृद्ध व आर्थिक रूप से सम्पन्न था। मानव कल्याण के लिए समर्पित तत्कालीन राज्य जेजाकभुक्ति अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त था। महोबा व जेजाकभुक्ति के नागरिकों, कवियों, लेखकों व बुद्धिजीवी वर्गों ने समाज के विकास हेतु उत्कृष्ट योगदान दिया। कुछ समय बाद जेजाकभुक्ति को बुन्देलखण्ड के नाम से जाना जाने लगा। बुन्देखण्ड में चंदेली राजाओं ने अपनी प्रशासनिक सूझबूझ से इसका विकास किया। उनके शासनकाल में महोबा में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की धूम मची रहती थी। इसलिए इसे महोत्सव नगर के नाम से जाना जाता रहा। सन् 1182 में दिल्ली के राजा पृथ्वीराज चैहान ने महोबा के राजा परमाल की पुत्री चन्द्रावली का डोला लेने के लिए आक्रमण किया। जब श्रावण पूर्णिमा के दिन राजकुमारी चन्द्रावली चैदह सौ सखियों के डोलों के साथ कीरतसागर में कजरियाँ विसर्जित करने आयी। उसी समय पृथ्वीराज की सेना ने कीरतसागर पर चन्द्रावली का डोला लूटना चाहा। कन्नौज से आये जोगी भेष में ऊदल, लाखन, ढेबा व ताला सैयद ने पृथ्वीराज की सेना को खदेड़ दिया। श्रावण पूर्णिमा को दिन भर कीरतसागर पर युद्ध चलता रहा था। इसलिए महोबा मेें रक्षा बन्धन का पर्व अगले दिन यानी भाद्रपद कृष्ण की परेवा को मनाया गया। तभी से महोबा में विजय उत्सव के रूप में 1182 से कजली मेला लगता चला आ रहा है। रक्षा बन्धन के दूसरे दिन का मेला गुरू गोरखनाथ की तपोभूमि गोरखगिरि में लगता है। रानी मल्हना ने कीरत सागर की विजय को भगवान शंकर की कृपा माना था। रानी मल्हना महोबा की प्रजा के साथ गोरखगिरि में स्थित शिवताण्डव मंदिर में पूजा-अर्चना के लिए गईं। रानी ने प्रजा के साथ उत्सव मनाया और तभी से रक्षा बन्धन का दूसरे दिन का मेला गोरखगिरि में लगने लगा। रक्षा बन्धन का तीसरे दिन दिन का मेला महोबा के हवेली दरवाजा में लगता है। तीसरे दिन के गुदड़ी के शहीद मेले का उद्देश्य आजादी के दीवानों की दी गयी कुर्बानी को याद करना और फांसी पर चढ़ाये गये देशप्रेमियों को अपनी सच्ची श्रृद्धांजलि अर्पित करना रहा है। 1857 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में महोबा के क्राँतिकारियों ने भी विद्रोह किया था। यह विद्रोह इतना जबरदस्त था कि तत्कालीन अंग्रेज ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट मि0 कार्ने को रातों रात जान बचाने के लिए चरखारी के राजा रतन सिंह के महल में शरण लेना पड़ी। इस विद्रोह से अंग्रेज आग बबूला हो गए और उन्होंने नौ क्राँतिकारियों को महोबा के हवेली दरवाजा में लगे इमली के पेड़ोें से फांसी पर लटका दिया था। चरखारी नरेश रतन सिंह द्वारा ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट मि0 कार्ने को शरण देने की खबर स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों द्वारा तत्काल झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को दी गयी। रानी ने इसका कड़ा विरोध किया, उन्होंने तात्याटोपे को सेना के साथ चरखारी भेजा और चरखारी किले को घेर लिया था। इन शहीदों की याद में तीसरे दिन का मेला कजली मेले से जोड़ दिया ताकि उनको सच्ची श्रृद्धांजलि दी जा सके। खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि लगभग पन्द्रह बीस वर्षों से गुदड़ी यानी शहीदों का मेला व गुरू गोरखनाथ की तपोभूमि गोरखगिरि में लगने वाला गोखार मेला (गोरखगिरि मेला) उपेक्षा के शिकार हो गए। आजादी के 75 साल बाद भी शहीदों के सम्मान में अभी तक हवेली दरवाजे में शहीद स्मारक नहीं बना। पूर्व में भारत सरकार के द्वारा शहीद स्मारक हेतु प्रस्ताव आमंत्रित किया गया था और हवेली दरवाजा में शहीद स्मारक बनाये जाने हेतु पूर्व जिलाधिकारी ने यहाँ प्रस्ताव भी भेजा लेकिन इसके बावजूद भी स्मारक नहीं बना। मेले की उपेक्षा से दुःखी होकर वर्ष 1997-98 में शहीद स्वतन्त्रता सेनानी स्व0 उमादत्त शुक्ला व बशीर अहमद ने हवेली दरवाजा में जिन्दा जमीन में दफन होने का ऐलान कर दिया था। जिले के तत्कालीन डी0एम0 उमेश सिन्हा व ज्वाइन्ट मजिस्ट्रेट एल0 वेंकटेश्वर लू परेशान हो गए थे। तब उन्होंने गुदड़ी मेले में दुकानें लगवायीं, झूला आदि लगवाये व साँस्कृतिक कार्यक्रम कराये परन्तु इन अधिकारियों के जाते ही मेला उपेक्षित हो गया। अब एक भी वी0आई0पी0 कार्यक्रम इस मेले में नही होता। जिससे मेले का स्वरूप बिगड़ गया। शहीद मेले की सच्ची सार्थकता तभी होगी, जब हवेली दरवाजा में शहीद स्थल बनेगा। गुरू गोरखनाथ की तपोभूमि गोखारगिरि मेले का इतिहास भी गौरवपूर्ण रहा है। गोखारगिरि मेले में लाखों दर्शकों की भीड़ जमा होती थी। जहां पर शिवताण्ड ग्राउण्ड में विशाल दंगल होता था जिसे दर्शक गोरखगिरि की चोटियों में बैठकर देखते थे। सैकड़ों पालकियों वाले झूले लगते थे जिसमें महिलाएं व पुरूष झूले का आनन्द लेते थे। पूरा मैदान दुकानों से सजा रहता था। आल्हा-ऊदल की वीरता भरी कविताएं, गीत आदि पुस्तकों की बिक्री हेतु दुकानदार विशेष पुस्तकें रखते थे साथ ही साज-बाज के साथ संगीत के साथ गीत गाकर प्रचार प्रसार करते थे। लखनऊ से संस्कृति विभाग की सांस्कृतिक टीमें आती थीं जो दर्शकों को अपने कार्यक्रमों से आकर्षित करती थीं। लोग श्रृद्धापूर्वक गोरखगिरि की परिक्रमा में बने देव स्थलों-रामजानकी मंदिर, पठवा के बाल हनुमान मंदिर, लाल भैरव व काल भैरव मंदिर, संत कबीर आश्रम, बाबा फीरोज शाह की दरगाह, काली माता व छोटी चन्द्रिका मन्दिर, परमाल के पुत्र रंजीत व माहिल के पुत्र अभई के शहीद स्थल, नागौरिया मंदिर आदि के दर्शन करते थे। चैदह वर्ष के वनवास काल में भगवान् राम गोरखगिरि में ठहरे थे। प्रमाण स्वरूप सीता रसोई व रामकुण्ड आज भी स्थित है। अंधियारी व उजियारी चुल गोरखगिरि में ही है। मेले के दौरान दर्शक इस पर्वत की प्राकृतिक सुन्दरता का आनन्द लेते थे। परन्तु वर्तमान में गोरखगिरि मेले में न तो दुकानें लगती हैं, न झूले लगते हैं और न ही राष्ट्रीय स्तर का दंगल लगता हैै। इससे जनसमूह मेले में नही उमड़ता। गोरखगिरि में एक भी वी0आईपी0 कार्यक्रम नहीं होता, यहां तक कि आल्हा गायन तक का कार्यक्रम नहीं होता। इससे दर्शकों की भीड़ नहीं उमड़ती। कजली मेले के सभी वी0आई0पी0 कार्यक्रम कीरतसागर के मंच पर होते हैं। एक भी बड़ा कार्यक्रम गोरखगिरि व शहीद मेले में नहीं होता। यदि इसी प्रकार शहीद मेले व गोरखगिरि मेले की उपेक्षा होती रही तो भविष्य की पीढ़ी गोखारगिरि व शहीद मेले का गौरवपूर्ण इतिहास भी भूल जाएगी। अब तो कवि, लेखक, बुद्धिजीवी यहां तक कि नवयुवक भी मेले की उपेक्षा से चिन्तित हैं। गोरखगिरि के ऐतिहासिक मेले की गरिमा व उपेक्षा पर झलकारी खण्ड काव्य के रचयिता बुंदेली कवि हृदयाल हरि अनुरागी ने अपनी काव्य पंक्तियों में इस प्रकार प्रकाश डाला है – धन्य है भूमि चन्देली अपनी महुबे की महिमा न्यारी मेला लगे जहां भारी। गोरखगिरि शिवताण्डव जू के दर्शन करते नर नारी मेला लगे जहां भारी। सिद्ध आश्रम बनो सुहानो मेला लगै सबै को जानो, नाँव सुँनत खल रहत चिमानो। झूला झूले सावन गावे फूल रही चहुँ फुलवारी। खूबई इतै शैलानी आवे, अपनो जीवन सफल बनावे, माया नगरी के गुन गावे। बनी गुफाएँ उतै पुरानी अँधियारी व उजियारी। जनता निज कर्तव्य निभावै, गरिमा गोरखगिरि की गावे, दोज को मेला इतै लगावे। होत उपेक्षा गोरखगिरि की सुनत न कोऊ अधिकारी। संस्कृति को संरक्षण करने, जन-जन साहस प्रेम है भरने, तभई जा सूखी डाली खिलने। दुःखियन को दुख हरवे वारे, रक्षा करें हरि त्रिपुरारी। मेला लगे जहाँ भारी।
वर्तमान में गोरखगिरि मेले का खोये हुए अस्तित्व को वापस लाने के लिए यहाँ राष्ट्रीय दंगल करवाना होगा, संस्कृति विभाग व आकाशवाणी छतरपुर के कलाकारों द्वारा बुंदेली साँस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन कराना होगा। विधि साक्षरता कार्यक्रम, किसान गोष्ठी, कवि सम्मेलन आदि वी0आई0पी0 कार्यक्रम कराने होंगे। मनोरंजन हेतु छोटे-बड़े झूले व दुकानें एवं प्रदर्शिनी लगाना होगी, सुरक्षा व्यवस्था हेतु पुलिस तैनात करनी होगी। शहीद मेले में रात्रि में आल्हा गायन कार्यक्रम या नाटक आदि का कार्यक्रम कराने होंगे एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के योगदान की प्रदर्शिनी आदि लगानी होगी, तभी शहीद मेले का खोया हुआ अस्तित्व वापस आ सकता है अन्यथा आगामी पीढ़ी ऐतिहासिक गोरखगिरि व शहीद मेले का इतिहास ही भूल जायेगी।